मुल्क के विभाजन को नहीं मानते थे कृष्ण अदीब
मंजुल के लाइव सत्र 'दास्तान ए-शायरी' में एक्टर रसिका अगाशे ने पढ़े निदा की किताब के अंश
अमिताभ पांडेय
भोपाल। ''मशहूर शायर कृष्ण अदीब उन शायरों में थे, जो मुल्क के विभाजन को नहीं मानते थे। उर्दू के हवाले से वे दोनों मुल्कों में रहते थे। उनका शरीर हिंदुस्तान में था, लेकिन आत्मा फ़ैज़ और क़तील शिफ़ाई के पाकिस्तान में रहती थी।''
डॉयरेक्टर-एक्टर रसिका अगाशे ने मंगलवार देर शाम मंजुल पब्लिशिंग हाउस के इंस्टाग्राम पेज पर चल रही लाइव सत्रों की शृंखला 'दास्तान- ए -शायरी' की तीसरी कड़ी में हिन्दी और उर्दू के मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली की किताबों 'तमाशा मेरे आगे' और 'चेहरे' के उन ख़ूबसूरत अंशों को पढ़ा, जो उर्दू अदब के मस्त-मौला पंजाबी शायर कृष्ण अदीब से जुड़े थे। अगाशे ने निदा की किताबों को उद्धृत करते हुए कहा कि सरहद पर जब जवानों ने कृष्ण अदीब को रोका, तो वे चिल्लाने लगे- 'आप बकवास करते हैं। यह विभाजन झूठा है। फ़ैज़ और साहिर की शायरी नहीं बँट सकती। कृष्ण चंदर और नदीम क़ासमी के नाम को सियासत नहीं बाँट सकती। बाबा फ़रीद और बाबा नानक हमारी साझी विरासत हैं।' इस पर सरहद पार के फौज़ी ने कहा- 'बात तो शायर ठीक कहता है, लेकिन सियासत किसी हकीकत को नहीं मानती।'
कृष्ण अदीब से निदा फ़ाज़ली की पहली मुलाकात
अगाशे ने कहा कि किताब ‘चेहरे’ में निदा फ़ाज़ली बताते हैं- ''कई साल पहले की बात है, लुधियाना में मुशायरा था। लुधियाना पंजाब में था और सारा पंजाब गोली, तलवार और बमों के धमाकों से बेताब था। सारे क्षेत्र में दहशत फ़ैली हुई थी। लुधियाना में रेल सूर्योदय से दो घंटे पहले पहुँच गई थी। दूसरे यात्रियों की तरह मैं भी मुसाफ़िरखाने में एक कुर्सी पर बैठ गया। यात्रा की थकान ने आंखों में नींद भर दी। अखबारों की ख़बरें, हथियारबंद आतंकवाद बन कर नींद भरी आंखों में घूम रहीं थीं कि अचानक एक जोर का धमाका हुआ। नींद टूटी तो पता चला कि जिसे मैंने बेहोशी में धमाका समझा था, वह होश में इकहरे बदन और चेहरे में धंसी हुई आंखें, लम्बे कद और गर्म सूट और टाई का लिबास पहने एक इंसान था। भारी ठेठ पंजाबी लहजे में उसने पूछा-
'तुम निदा फ़ाज़ली हो?
जी हां! मैंने चौंकते हुए जवाब दिया।
उसने मेरे मुंह से जी हां सुनते ही...
उसने मेरे मुंह से जी हां सुनते ही उसी आवाज़ में कहा, निदा फ़ाज़ली हो तो यहां क्यूं बैठे हो, चलो मेरे साथ। वो उर्दू का पंजाबी शायर था, उसकी शायरी साहिर की तरह रूमानी और इंसानी थी, वो पाकिस्तान के रिसालों में ज़्यादा छपता था।
द्वार पर रेलवे अधिकारियों ने बाहर जाने से रोका तो वह नाराज़ लहज़े में उनसे कहने लगा - ‘महोदय! आपको शायद ज्ञान नहीं है यह शहर ‘साहिर लुधियानवी’ की नज़्में और ग़ज़लें सुन चुका है। शिव बटालवी की शायरी की तारीफ़ करता है। यह इलाका शायरी का फजारी है, अच्छे शायरों से इसे प्रेम है। यहां निदा फ़ाज़ली को कोई ख़तरा नहीं है। ये मेरे साथ जाएंगे और मैं बदनाम शायर हूं, कृष्ण अदीब।''
निदा को अनौपचारिकता पसन्द आई
''बाहर निकलते ही उसने टैक्सी ली और कई अंधेरे रास्तों से गुजारकर मुझे सही सलामत एक होटल में पहुंचा दिया। होटल के कमरे की रौशनी में देखा तो वह कुछ घबराया-घबरायास बेचैन सा नज़र आ रहा था। इस बेचैनी को बहलाने के लिए वह बार-बार सिगरेट सुलगा रहा था और लम्बे-लम्बे कश लगा रहा था।
जब घबराहट बढ़ने लगी तो वह खड़ा हो गया और कहने लगा। यार तुम्हारे सूरज को निकलने में अभी एक घंटे की देर है, और मेरा सूरज कभी का उदय हो चुका है। इसलिए अब मैं चलता हूं मुझे पचास रुपए दो शराब पीने के लिए। मैं पहले ख़ुद को शराब पिलाऊंगा फिर थोड़ा जिस्म को सुलाऊंगा उसके बाद शाम को मुशायरे में आऊंगा और तुम्हारे शेर सुनूंगा और अपने सुनाऊंगा।''
आगे निदा फ़ाज़ली लिखते हैं , ‘उसकी अनौपचारिकता मुझे पसन्द आई’। मैंने तत्काल सौ का नोट दिया। वह नोट लेकर तेज़ कदमों ले गया और थोड़ी देर में वापस आकर पचास रुपए लौटा गया।'
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